प्रिय विद्यार्थियों , mynewradiant.com पर आप सभी का एक बार फिर स्वागत है और आज का ब्लॉग है इलेक्ट्रिक सेल के ऊपर जिसमे बड़े ही साधारण शब्दों में हमने सेल के प्रकार और हर एक प्रकार के सेल को समझाया है !
वैद्युत धारा के स्रोत
आवेशित वस्तु विसर्जन द्वारा उत्पन्न होने वाली धारा अल्प अवधि तक रहती है । यदि हम चालक तार में धारा के प्रवाह को समय तक प्रवाहित करना चाहते है , तो हमें तार को ऐसे दो स्रोतों के सिरों से जोड़ देना चाहिए जहाँ सतत रूप से आवेश का उत्पादन हो रहा हो । स्त्रोत के दो सिरों के मध्य अनुभव किया जाने वाला बल विद्युत वाहक बल E कहलाता है , जो आवेश के प्रवाह को बनाए रखता है ।
धारा के प्रचलित स्रोत रसायन आधारित सेल , सौर ऊर्जा सेल तथा डायनेमो हैं । वह युक्ति जिसमें उसके दो सिरों के बीच में रासायनिक ऊर्जा के यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित हो जाने के कारण विभवांतर बना रहता है , उसे रसायन आधारित सेल कहते हैं ।
सौर सेल में विभवातर उत्पन्न करने के लिए सौर ऊर्जा यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है । डायनेमो ऐसी युक्ति है जो यांत्रिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदल देती है ।
सेल ( विधुत रासायनिक सेल ) मूल रूप से सेल दो प्रकार के होते है-प्राथमिक सेल तथा द्वितीयक सेल ।


प्राथमिक सेलों में होने वाले रासायनिक परिवर्तन अनुत्क्रमणीय होते हैं तथा उनमें से धारा प्रवाहित होने पर रसायनों का उपयोग कर लिया जाता है । शुष्क सेल प्राथमिक सेल के उदाहरण है । द्वितीयक सेलों में होने वाले रासायनिक परिवर्तन उत्क्रमणीय होते हैं । एक बार उपयोग कर लिए जाने पर द्वितीयक सेल को आवेशित करके पुन : उपयोग किया जा सकता है क्योंकि उसके रसायन पुनः प्रयोज्य होते हैं । बैटरियाँ अथवा संचालक सेल द्वितीयक के उदाहरण हैं। रसायन आधारित यांत्रिक सेल का निर्माण एक ऐसी व्यवस्था है , जो दो छड़ों को किसी उपयुक्त विलयन में रखकर बनाई जाती है ।
प्राथमिक सेल
1. वोल्टीय सेल – वोल्टीय सेल का आविष्कार 1796 ई ० में एलोसेंडो वोल्टा द्वारा किया गया था जो कि इटली के एक वैज्ञानिक थे । इस सेल में दो पट्टियाँ होती है , एक ताँबे की तथा दूसरी शुद्ध जस्ते की , जो एक कांच के पात्र मे तनु सल्पयूरिक अम्ल में डूबी रहती है । इस सेल में प्रयुक्त होने वाला अम्ल विद्युत अपघट्य कहलाता है तथा उसमें डूबी हुई धातु की छड़े इलेक्ट्रोड कहलाती हैं । ताँबा धनात्मक इलेक्ट्रोड तथा जस्ता ऋणात्मक इलेक्ट्रोड होता है । जब दोनो पट्टियों को तार द्वारा जोड़ दिया जाता है , तो अम्ल तथा जस्ते के बीच में रासायनिक अभिक्रिया होने के कारण इलेक्ट्रॉन इस तार के द्वारा जस्ते की पट्टी से ताँबे की पट्टी की ओर प्रवाहित होने लगते हैं । प्रचलित रूप से धनात्मक आवेश तांबे से जस्ते की प्लेट की ओर के प्रवाहित होते हैं । वोल्टीय सेल को सामान्य सेल भी कहते हैं ।

सामान्य सेल की कमियाँ-
( i ) ध्रुवण – हाइड्रोजन के बुलबुले तांबे को पट्टी पर चिपक जाते हैं । हाइड्रोजन विद्युत का कुचालक है , इसलिए यह आवेश के पथ को सीमित कर देता है । इसके परिणामस्वरूप धारा कम हो जाती है ।
(ii ) स्थानीय क्रिया – अशुद्ध जस्ते में अन्य धातुओं की मिलावट होती है । इन धातुओं के छोटे टुकड़े जस्ते के साथ छोटे सेल बनाते हैं जो तार के न संबद्ध होने पर भी सल्फ्यूरिक अम्ल में डूबे रहते हैं । अत : रासायनिक ऊर्जा व्यर्थ हो जाती है ।
2 . डेनियल सेल — इस सेल का आविष्कार 1836 ई ० में जे ० एफ ० डेनियल द्वारा किया गया था । इसमें एक तांबे का पात्र होता है , जिसमें विद्युत अपघट्य के रूप में कॉपर सल्फेट का विलयन होता है । एक सरंध्र पात्र जिसमें तनु सल्फ्यूरिक अम्ल होता है तथा जस्ते की छड़ को कॉपर सल्फेट के विलयन में रखा जाता है । तांबे का पात्र धनात्मक इलेक्ट्रोड के रूप में कार्य करता है तथा जस्ते की छड़ ऋणात्मक इलेक्ट्रोड की भाँति कार्य करती है । जब इन दोनों इलेक्ट्रोडों को तार द्वारा जोड़ दिया जाता तब धारा प्रवाहित होती है । डेनियल सेल , वोल्टीय सेल की अपेक्षा अधिक स्थायी धारा प्रदान करता है ।

3. लेकलांशे सेल – लेकलांशे सेल को सबसे पहले वर्ष 1865 ई ० में जॉर्ज लेकलांशे द्वारा निर्मित किया गया था । इसमें एक काँच का पात्र होता है , जिसमें अमोनियम क्लोराइड ( NH4CI ) का संतृप्त विलयन , विद्युत – अपघट्य की तरह कार्य करता है तथा एक अमलगमित जस्ते को पट्टी विलयन में डूबी रहती है । जस्ते की पट्टी है ऋणात्मक आवेश की तरह कार्य करती है । काँच के पात्र में एक सरंध्र पात्र रखा रहता जिसमें कार्बन पट्टी होती है तथा वह चूर्णित मैगनीज डाइ – ऑक्साइड ( MnO2 , ) एवं कोलतार ( C ) से भरा रहता है । कार्बन पट्टी धनात्मक इलेक्ट्रोड की तरह कार्य करती है तथा मैंगनीज डाइ – ऑक्साइड विध्रुवक की तरह कार्य करता है । कोलतार को मैगनीज डाइ – ऑक्साइड के साथ मिश्रित कर दिया जाता है जिससे वह चालक बन जाता है !

जब कार्बन तथा जस्ते की प्लेटों को बाहरी परिपथ से जोड़ा जाता है तो परिपथ में विद्युत धारा कार्बन से जस्ते की ओर प्रवाहित होती है अर्थात् इलेक्ट्रॉन जस्ते से कार्बन की ओर प्रवाहित होते हैं।
4. शुष्क सेल – टॉर्च , ट्रांजिस्टर तथा घड़ियों में सामान्यत : शुष्क सेल का उपयोग किया जाता है । यह लेकलांशे सेल का सुवाह्य रूप है । इसमें छोटा जस्ते का पात्र होता है जो ऋणात्मक इलेक्ट्रोड की तरह कार्य करता है । ) इसमें अमोनियम क्लोरावड़ का जिंक क्लोराइड , आटे तथा गोंद के साथ मिलकर बना पेस्ट होता है जो विद्युत अपघट्य की तरह कार्य करती है । एक काँसे की टोपीयुक्त कार्बन पट्टी पात्र के बीच में रखी जाती है जो धत्तात्मक इलेक्ट्रोड की तरह कार्य करती है । यह चूर्णित मैंगनीज डाइ – ऑक्साइड ( विध्रुवक ) के संपीड़ित मिश्रण तथा तारकोल द्वारा घिरी रहती है जो एक मलमल की थैली में रखा रहता है । जस्ते के पात्र का शीर्ष भाग मोम से सील रहता है जिसमें बारीक छिद्र होते हैं जिससे अमोनिया गैस बाहर निकल सके । जब कार्बन पट्टी तथा जस्ते के पात्र को बाहरी परिपथ से जोड़ दिया जाता है तो परिपथ में विद्युत धारा कार्बन से जस्ते की ओर बहने लगती है । हालांकि शुष्क सेल में इलेक्ट्रॉन कभी खर्च नहीं होते हैं , पर रसायन अंतत समाप्त हो जाते हैं । जब रासायनिक अभिक्रिया रुक जाती है , तो इलेक्ट्रॉनों का मुक्त होना बंद हो जाता है ।

5. बटन सेल – यह एक प्रकार का शुष्क सेल होता है । जैसा कि नाम विदित है , यह देखने तथा आमाप में बटन जैसा होता है । इसका व्यास सामान्यतः इसकी ऊँचाई से अधिक होता है । बटन सेलों का उपयोग सामान्यतः छोटे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों ; जैसे घड़ियों , कैलकुलेटर तथा सुनने की मशीनों में किया जाता है ।

बटन सेलों में जस्ता अथवा ऐलुमिनियम जैसी धातुएँ धनात्मक इलेक्ट्रोड ( ऐनोड ) के रूप में होती है तथा सिल्वर ऑक्साइड तथा मरकरी ऑक्साइड जैसे यौगिक ऋणात्मक इलेक्ट्रोड ( कैथोड ) के रूप में सोडियम अथवा पोटैशियम ऑक्साइड विद्युत अपघट्य के रूप में कार्य करते हैं ।
द्वितीयक सेल
1. संचायक सेल अथवा बैटरियाँ –
प्राथमिक सेलों ( वोल्टीय , डेनियल , लेकलाशे , शुष्क सेल तथा बटन सेल ) में रसायन ज्यादा समय तक नहीं चलते । जब धातु की छड़ों तथा रसायन खर्च हो जाते हैं , तो उन्हें दुबारा प्रयोग नहीं किया जा सकता । 1854 ई० में एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक गेस्टन प्लाटी ने एक ऐसे सेल का आविष्कार किया जिसमें विद्युत धारा उत्पन्न करने वाली रासायनिक अभिक्रिया को उत्क्रम / रिवर्स किया जा सकता था । जब इस रासायनिक अभिक्रिया को सेल में विद्युत धारा प्रवाहित करके उत्क्रमित कर दिया जाता है , तो सेल के मूल रसायन संचित रहते हैं तथा सेल फिर से कार्य करने के लिए तैयार हो जाता है । यह प्रक्रिया पुन : आवेशन कहलाती है । पुन : आवेशित होने वाले सेल संचालक बैटरी कहलाते हैं । इन बैटरियों को बार – बार पुन : आवेशित किया जा सकता संचायक बैटरियों को द्वितीयक सेल अथवा संचायक सेल भी कहते हैं । संचायक सेल दो प्रकार के होते हैं

( i ) सीसा अम्ल संचायक सेल ( सीसा संचालक बैटरी ) -इसमें H2SO4 ( विद्युत अपघट्य ) में डूबी हुई सीसे को कुछ पट्टियाँ होती हैं । धनात्मक इलेक्ट्रोड में लेड परॉक्साइड युक्त सीसे की ग्रिड होती है । ऋणात्मक इलेक्ट्रोड एक स्पंजी सरंध्र सीसे की पट्टी होती है । इस प्रकार की बैटरी में सामान्यत : 6 सेल होते हैं तथा यह 12 वोल्ट का वोल्टेज देती हैं । इनका उपयोग बसों , ट्रकों , रेल के डिब्बों आदि में प्रकाश के लिए किया जाता है । जो सेल पुन : आवेशित नहीं हो पाते हैं , उन्हें प्राथमिक सेल कहते हैं । द्वितीयक सेल वे होते हैं , जिन्हें पुन : आवेशित किया जा सकता है ।
( ii ) Ni – Fe क्षारीय संचायक सेल ( क्षारीय संचायक बैटरियाँ ) –इसके सेलों में सीसे की पट्टियों के स्थान पर लोहे के ग्रिड होते हैं । एक ग्रिड के कोठ आयरन ऑक्साइड से भरे रहते हैं तथा दूसरे के कोष्ठों में निकिल ऑक्साइड होता है । दोनों ग्रिड कास्टिके पोटाश के विलयन में डूबे रहते हैं । इस सेल को एडीसन का एल्कली सेल भी कहा जाता है ।


2. सौर सेल –
वे सेल जो सूर्य को रोशनी को विद्युत धारा में परिवर्तित कर देते है , उन्हें सौर सेल कहते हैं । सामान्य सौर सेल में सिलिकॉन का पतला लेप होता है जिसमें कुछ आर्सेनिक के परमाणु होते हैं । इस लेप पर सिलिकॉन तातुलना में । बोरोन की पतली परत होती है । जल टि जब इस व्यवस्था पर प्रकाश की किरणें गिरती है तो उस तार में धारा प्रवाहित होने लगती है जो लेप तथा पतली परत को जोड़े रहता है । सौर सेल से प्राप्त होने वाली विद्युत धारा बहुत कम होती है , इसलिए सौर सेलों के पैनल का उपयोग किया जाता है । सौर सेलो का उपयोग ग्रामीण क्षेत्रों में कैलकुलेटर , ट्रांजिस्टर तथा विद्युत प्रकाश के लिए किया जाता है ।
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