राजाराम मोहन राय – एक समाज सुधारक
राजा राममोहन राय

उन्होंने संस्कृत की परम्परागत शिक्षा वाराणसी में और अरबी तथा फारसी की शिक्षा पटना में प्राप्त की । बाद में उन्होंने अंग्रेजी , ग्रीक तथा हिब्रू भाषाएँ भी सीखीं । राममोहन राय ने न केवल हिन्दू धर्म का गहन अध्ययन किया , बल्कि ईसाई , इस्लाम धर्म तथा जैन धर्म का भी अध्ययन किया । उन्होंने बंगला , हिन्दी , संस्कृत , फारसी तथा अंग्रेजी में कई ग्रन्यों की रचना की । युवावस्था में ही उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया । जिसके कारण उन्हें घर छोड़कर भागना पड़ा । कहा जाता है कि वह चार वर्षों तक भटकते रहे और तिब्बत तक गये थे । पिता ने उनकी खोजबीन की और पता लगने पर घर बुला लिया तथा शीघ्र ही विवाह कर दिया , किन्तु युवक राममोहन राय ने हिन्दू जाति का पूरी तरह से सुधार करने का निश्चय किया था । अतः विवाह का बन्धन भी उन्हें रोक नहीं सका । ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन रंगपुर में क्लर्क पद पर उन्होंने नौकरी प्रारम्भ की । बाद में वे प्रोन्नति करके दीवान के पद तक पहुंचे । राममोहन राय का दृढ मत था कि हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि जनता को उनके मूल धर्मग्रन्थों की सही जानकारी दी जाये । इसके लिए उन्होंने अथक प्रयास करके वेदों तथा उपनिषदों के बंगला अनुवाद प्रकाशित किये । उन्होंने एक सर्वशक्तिमान ईश्वर पर आधारित विश्वधर्म में अपनी आस्था व्यक्त की । उन्होंने मूर्ति पूजा तथा धार्मिक अनुष्टानों की निन्दा की । धार्मिक सुधार के क्षेत्र में उनका महान् कार्य था । उन्होंने सन् १८२८ में ब्रह्म सभा की और सन् १८२९ में ब्रह्म समाज की स्थापना की । ब्रह्म समाज धर्म सुधार का पहला संगठन था । उसने मूर्तिपूजा और निरर्थक रीति रिवाजों का बहिष्कार किया । समाज ने अपने अपने समुदायों के लिए नियम बनाया कि वे किसी भी धर्म पर प्रहार न करें ।

सति प्रथा एक शर्मनाक कुरीति
राजा राम मोहन रॉय की गतिविधियां धार्मिक सुधार तक सीमित नही थी । उन्होंने भारत में अंग्रेजी शिक्षा शुरू करने का भी समर्थन किया वे समझते थे की ज्ञान विज्ञानं में तरक्की के लिए अंग्रेजी शिक्षा आवश्यक है । प्रेस की आजादी के समर्थक थे और प्रेस पर लगे प्रतिबन्धों को हटाने के लिए उन्होंने आन्दोलन किया था । उन्होंने दो समाचार पत्रों का भी प्रकाशन किया । सन् 1819 में उन्होंने संवाद कौमुदी नामक सर्वप्रथम बंगला साप्ताहिक पत्र निकाला बाद में में फारसी में मिरातुल अख़बार का प्रकाशन किया । सामाजिक सुधार के क्षेत्र में राममोहन राय की सबसे बड़ी उपलब्धि थी , सन् 1829 में सती प्रथा का अन्त । उन्होंने देखा था कि उनके बड़े भाई की पत्नी को सती होने के लिए मजबूर किया गया था । सती प्रथा के खिलाफ आन्दोलन का कट्टरपंथियों ने बड़ा विरोध किया था । राममोहन राय ने महसूस किया कि सती प्रथा हिन्दू स्त्रियों की अत्यन्त दयनीय दशा का ही अंग है । उन्होने बहुपत्नी विवाह का भी विरोध किया । वे चाहते थे कि स्त्रियों के लिए शिक्षा की व्यवस्था हो और उन्हें सम्पत्ति का उत्तराधिकार मिले । राममोहन राय और उनके सहयोगियों को कट्टरपंथी हिन्दुओं की शत्रुता तथा उपहास का सामना करना पड़े । मगर ब्रह्म समाज का प्रभाव बढ़ता गया और देश के विभिन्न भागों में समाज की शाखाएं स्थापित हुई । ब्रह्म समाज के दो प्रमुख नेता थे । देवेन्द्रनाथ ठाकुर और केशव चन्द्र सेन । उसके प्रचार के लिए केशव चन्द्रमेन ने बम्बई तथा मद्रास प्रान्तों तथा बाद में उत्तर भारत का दौरा किया । बाद में ब्रह्म समाज दो भागों में विभाजित हो गया । राममोहन राय ने जाति प्रथा का भी विरोध किया । उन्होंने अन्तर्जातीय विवाह तथा पुनर्विवाह का भी समर्थन किया । उन्होंने परदा – प्रथा का विरोध किया । जाति – प्रथा के विरोध में उन्होंने तथाकथित निम्न जातियों के साथ खान – पान भी शुरू किया । खान – पान से सम्बन्धित वस्तुओं पर लगाये गये प्रतिबन्धों का विरोध किया । समाज में स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के लिए संघर्ष किया । शिक्षा के प्रसार के लिए प्रयास किये और धर्म के नाम पर धर्मान्धता का विरोध किया । राममोहन राय का मत था कि अंग्रेजों की देख – रेख में भारत की प्रगति हो सकती है । इसके लिए वे पूर्व और पश्चिम का मिलन आवश्यक मानते थे । इसी संदर्भ में उनकी इंग्लैण्ड जाने की भी इच्छा थी । परन्तु कुछ रुकावटें थीं । उस समय भारत के नाममात्र के मुगल सम्राट इंग्लैण्ड के महाराज के सामने अपनी कुछ शिकायतें रखना चाहते थे । इस कार्य की जिम्मेदारी राममोहन राय को सौंपी गयी । इस प्रकार सन् 1839 में वे इंग्लैण्ड पहुंचे । वहीं पर उन्हें राजा की पदवी दी गयी । तभी से उन्हें राजा राममोहन राय के नाम से जाना जाने लगा । इंग्लैण्ड में उनका भव्य स्वागत किया गया । वहां पर उन्होंने जगह – जगह पर भाषण दिये । जिसमें उन्होंने भारत की मुख्य समस्याओं को उजागर किया तथा भारतीय संस्कृति के सन्दर्भ में फैली भ्रांतियों को दूर किया । इंग्लैण्ड से फ्रांस की राजधानी पेरिस भी गये । पेरिस में लगातार भाग – दौड़ से उनका स्वास्य गिरने लगा । फ्रांस से इंग्लैण्ड लौटने पर वह गम्भीर रूप से बीमार हो गये और इंग्लैण्ड के ब्रिस्टल नगर में 27 नवम्बर , 1833 को उनका देहान्त हो गया । उस समय उनकी आयु 62 वर्ष की थी । ब्रिस्टल में ही उनकी अन्त्येष्टि सम्पन्न हुई । इस स्थान पर अब उन्हीं के नाम पर एक स्मारक बना दिया गया है । इस प्रकार राजा राममोहन राय ने अपने सम्पूर्ण जीवन – काल में अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए संघर्ष किया तथा हिन्दू धर्म तथा समाज में फैली बुराइयों का भी अन्त किया । आज भी उनका नाम इतिहास में अमर है ।

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